Saturday, October 8, 2011

खुद से लापता...

अजनबी शहर है अजनबी डगर है, बीच राह में खड़े है जाना किधर है?
तलाशते है कुछ अपनों को इस भीड़ में जाने बिना ये के
दिल में जहर है इधर भी और उधर भी l
हाथ बढ़ाते है दोस्ती का सबसे के कुछ तो मिले सबब ख़ुशी का पर ये ना जाने के,
हाथो में खंजर है सभी के इधर भी और उधर भी l
हर दरवाजा है बंद इस शहर में के ऐसा लगता है जैसे हो कोई बियाबान सा,
लगता है हर किसी को डर है चोरी का इधर भी और उधर भी l
हर किसी से पूछते है पता मयखाने का के होश में आये, थोड़ी देर ही सही,
पर नहीं पाते एहसास ऐसा क्युकी,
हाथो में लिए खाली जाम घूमता है प्यासा इधर भी और उधर भी l

3 comments: